उपन्यास >> कालातीत व्यक्ति कालातीत व्यक्तिश्रीदेवी
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तेलगू के प्रसिद्ध उपन्यास ‘कालातीत व्यक्तुकलु’ का हिंदी अनुवाद...
Klateet Vyakti
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कालातीत व्यक्ति तेलगू के प्रसिद्ध उपन्यास ‘कालातीत व्यक्तुकलु’ का हिंदी अनुवाद है। शिक्षित नारी पुरुष के संबंधों के विविध आयाम पर इस उपन्यास में गम्भीरता से विचार किया गया है। सर्वप्रथम यह उपन्यास सन् 1955-56 में तेलगू पत्रिका में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ था और पाठकों की अभूतपूर्व प्रशंसा का हकदार बना था। प्रेम विवाह, एकाकी जीवन और पारिवारिक समस्याओं के चक्रव्यूह में संघर्षरत युवा पीढ़ी किस तरह व्याकुल रहती है, सामाजिक मान्यताओं और आर्थिक समस्याओं की सुरंग से किस तरह यह पीढ़ी अपने को बचा पाती है, और अपने लक्ष्य तक पहुँच जाती है-इसका बेबाक चित्रण इस उपन्यास में लेखिका ने किया है। मनोविश्लेषणात्मक चरित्र चित्रण एवं संतुलित भाषा तकनीक का संयोग पाकर इस उपन्यास की कथा भूमि पर्याप्त ऊर्वर और प्रभावकारी साबित हुई है। आंध्र प्रदेश के सामान्य जनपद के जीवन-यापन, आहार-व्यवहार, आचार-संस्कार, लोक-शास्त्र आदि का जीवंत चित्र प्रस्तुत करता हुआ यह उपन्यास विषय एवं शिल्प-दोनों ही दृष्टि से महत्वपूर्ण और संग्रहणीय पुस्तक है।
तेलगू उपन्यास के विकास क्रम में श्रीदेवी स्वायंत्र्योत्तर काल की महत्वपूर्ण उपन्यास-लेखिका के रूप में जानी जाती है। कथ्य एवं शिल्प की नूतनता तेलगू उपन्यास में जिन महत्वपूर्ण रचनाकारों के सद्प्रयास से आई, उनमें इनका नाम आदर से लिया जाता है। स्त्री-पुरुष संबंधों के मनोविज्ञान और मानवीय आचारों के उतार-चढ़ाव को बड़ी सूक्ष्मता से अपनी रचनाओं में उकेरती रही हैं। तेलगू कथा साहित्य की श्रीवृद्धि में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है।
इस उपन्यास का तेलगू से हिंदी अनुवाद हिंदी के सुपरिचित लेखक बालशौरी रेड्डी ने किया है। इन्होंने इस पुस्तक की भूमिका भी लिखी है। अनुवादक की मातृभाषा तेलगू है, मगर हिंदी में इनके संपादन, अनुवाद और मूल लेखन का विपुल भंडार उपलब्ध है।
तेलगू उपन्यास के विकास क्रम में श्रीदेवी स्वायंत्र्योत्तर काल की महत्वपूर्ण उपन्यास-लेखिका के रूप में जानी जाती है। कथ्य एवं शिल्प की नूतनता तेलगू उपन्यास में जिन महत्वपूर्ण रचनाकारों के सद्प्रयास से आई, उनमें इनका नाम आदर से लिया जाता है। स्त्री-पुरुष संबंधों के मनोविज्ञान और मानवीय आचारों के उतार-चढ़ाव को बड़ी सूक्ष्मता से अपनी रचनाओं में उकेरती रही हैं। तेलगू कथा साहित्य की श्रीवृद्धि में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है।
इस उपन्यास का तेलगू से हिंदी अनुवाद हिंदी के सुपरिचित लेखक बालशौरी रेड्डी ने किया है। इन्होंने इस पुस्तक की भूमिका भी लिखी है। अनुवादक की मातृभाषा तेलगू है, मगर हिंदी में इनके संपादन, अनुवाद और मूल लेखन का विपुल भंडार उपलब्ध है।
भूमिका
उपन्यास आधुनिक भारतीय साहित्य की एक प्रमुख विधा है। भारतीय वांगमय के लिए उपन्यास अंग्रेजी साहित्य की देन है, इस कथन में दो राय नहीं हो सकती।
समाज व्यक्तियों का समाहार है। साहित्य समाज का प्रतिफलन होता है। अतः समाज में नित्य प्रति घटित होनेवाली हलचलों कथा संघर्षों का चित्रण और विश्लेषण साहित्य का कथ्य होता है। अंग्रेजी के विख्यात कथाकार श्री रॉल्फ फाक्स ने ‘उपन्यास और लोक’ नामक अपनी पुस्तक में परिभाषा दी है, मानव जीवन की विविध कोणों से विश्लेषित एवं व्याख्या करने की सफल साहित्यिक विधा उपन्यास है।’’ सामाजिक स्थितियों को सही माने में विश्लेषित एवं परिभाषित करने के लिए रचनाकार में गहरी संवेदनशीलता, क्षमता तथा गहन अनुभूतियों की आवश्यकता होती है। साथ ही अपने जीवनानुभवों को व्यापक पटल पर अंकित करने योग्य भाषा-शैली तथा कलात्मक दृष्टि की भी आवश्यकता होती है, दरअसल मानव जीवन को गहराई से समग्र रूप में विश्लेषित करने में सर्वप्रथम उपन्यास ही सफल हुआ है।
आधुनिक तेलुगु साहित्य में विशेष लोकप्रिय विधा उपन्यास ही है। अन्य भारतीय भाषाओं की भांति, तेलुगु भाषा के लिए भी, कथा साहित्य अंग्रेजी की देन है। उपन्यास की परिभाषा के मानदंड पर प्रमाणित, तेलुगु का प्रथम उपन्यास श्री वीरेशलिंगम कृत राजशेखर चरित्र माना जाता है। परंतु यह उपन्यास अंग्रेजी के विख्यात उपन्यासकार श्री गोल्डस्मिथ के विकार ऑफ़ बेक्फील्ड का आंध्र के परिवेश में छायानुवाद है। यह उपन्यास तत्कालीन आंध्र की सामाजिक रीति-नीतियों का ऐसा दर्पण बन पड़ा है, जिससे वह एक मौलिक उपन्यास की श्रेणी में सफल सिद्ध हुआ है। परिणामस्वरूप एक अंग्रेजी की लेखिका ने पुनः इसका रूपान्तर ‘फार्चून्स हील’ नाम से अंग्रेजी में किया। अंग्रेजी दैनिक पत्र The Hindu ने ‘राजशेखर चरित्र’ उपन्यास पर टिप्पणी प्रकाशित की-
We may well say that Rajasekhar charitra marks an era in the amang of Telugu literature. It is the first Telugu novel that has yet appeared and as an attempt a new direction. We must consider it a success….’’
राजशेखर चरित्र का रचनाकाल सन् 1978 है, परंतु कतिपय समीक्षकों की मान्यता है कि श्री नरहरि गोपाल कृष्णम चेट्टि रचित श्री रंगराय चरित्रम् प्रथम उपन्यास है जो सन् 1872 में लिखा गया। उन्होंने अपने इस उपन्यास के बारे में लिखा है कि दस महीने पूर्व लार्ड मेयो ने घोषित किया था कि बंगाल के आचार व्यवहार एवं सामाजिक रीति-रिवाजों पर प्रकाश डालते हुए प्रस्तुत होने वाले प्रबंध-लेखक को सम्मानित एवं पुरस्कृत किया जाएगा।’ इस विज्ञप्ति को पढ़ते ही मेरे मन में आन्ध्र की सामाजिक पृष्ठभूमि पर एक उपन्यास लिखने की प्रेरणा जगी।
परंतु तेलुगु के मूर्धन्य समीक्षकों तथा पंडितों ने राजशेखर चरित्र को ही तेलुगु का प्रथम उपन्यास, निर्धारित किया। कथ्य की दृष्टि से राजशेखर चरित्र एक सशक्त सामाजिक उपन्यास है।
इसके बाद तेलुगु में संस्कृति, दर्शन, इतिहास तथा कल्पना प्रधान उपन्यासों की बाढ़ सी आ गई। श्री वीरेशलिंगम ने स्त्री समाज के उद्धार को लक्ष्य बनाकर विपुल साहित्य का सृजन किया। फिर श्री विश्वनाथ सत्यनारायण ने संस्कृति, तत्वान्वेषण तथा शिल्प की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण उपन्यास लिखे। श्री लक्ष्मीनारायण पंतुलु ने राजनीतिक एवं राष्ट्रीय आंदोलन पर केंद्रित ‘मालपल्लि’ (हरिजन बस्ती) नाम से एक क्रांतिकारी उपन्यास लिखा। श्री गुडिपाटि वेंकट चलम ने व्यक्ति की स्वतंत्रता और नारी मुक्ति को अपने उपन्यासों का कथ्य बनाया, तो बुच्चिबाबू ने मनोवैज्ञानिक उपन्यास रचे। अडिव बापिराजु तथा श्री नोरि लरसिंह राव ने ऐतिहासिक उपन्यास, श्री महीधर राममोहन राव ने राजनीतिक उपन्यास लिखे। श्री के. बटुंबराव ने मध्यवर्ग की समस्याओं को अपनी रचनाओं का कथ्य बनाया, तो श्रीमती रंगनायकम्मा ने नारी समस्याओं का सुंदर विश्लेषण किया। डा. केशवरेड्डी ने दलित पीड़ित समाज का चित्रण किया। श्री राचकोंड विश्वनाथ शास्त्री डॉ. रावरि भारद्वाज श्री गोपीचन्द्र श्री जी.वी. कृष्णराव ने तेलुगु उपन्यास को व्यापाक धरातल प्रस्तुत किया। छठे सातवें दशक में विविध विषयों पर हजारों उपन्यास रचे गए। आठवें दशक में सामाजिक कुरीतियों पर उपन्यासों की बाढ़ सी आई। साथ ही प्रगति शीलता एवं नारी समस्याओं को लेकर भी पर्याप्त संख्या में अच्छे-अच्छे उपन्यास रचे गए। नौवें दशक में विषय-वस्तु में वैविध्य के साथ गहनता एवं व्यापकता दृष्टिगोचर होती है। ग्रामीण जनता की जमीन संबंधी समस्याएं, गरीब किसानों तथा मजदूरों की जीवन संबंधी जटिलताएँ पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाववश मानवीय संबंधों की दरारें...विशद रूप से विश्लेषित हुईं हैं। अंतिम दशक में आर्थिक, राजनीतिक, समस्याओं के साथ दलित समाज, नारी वर्ग वृद्धों का अनादर, अकाल जाति धर्म वर्ग व वर्णों के बीच वैमनस्य, शिक्षा उपाधि बेकारी नक्सलबारी विद्रोह के साथ समानता आदि के सुंदर चित्र प्रस्तुत हैं।
स्वाधीनता से पूर्व तेलुगु में मुख्यतः समाज सुधार, राष्ट्रीय चेतना, इतिहास तथा मनोवैज्ञानिक उपन्यासों की विपुल मात्रा में रचना हुई स्वाधीनता के पश्चात् जनता की आशा-आकांक्षाओं का हनन और मोहभंग हुआ। शिक्षा के प्रचार के साथ नारी समाज में अभूतपूर्व जागृति आई। कामकाजी महिलाओं तथा गृहणियों के दैनंदिन जीवन में जो बदलाव आए, उनका चित्रण लेखिकाओं ने मर्मस्पर्शी शब्दों में किया।
स्वतंत्र्योत्तर काल में तेलुगु में कथ्य व शिल्प की दृष्टि से जिन लेखिकाओं ने उपन्यास के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई, उनमें श्रीमती मालती चन्दूर, रंगनायकम्मा, तेन्नेटि हेमलता, कोडूरि कौशल्या देवी, यद्दनपूडि सुलोचना रानी, मादिरेड्डी सुलोचना द्विवेदुल विशालाक्षि सी. आनन्द रामम, वासिरेड्ड़ी सीतादेवी, बीनादेवी, डी कामेश्वरी, ओल्गा, पविन निर्मला प्रभावती, मल्लादि वसुन्धरा, श्रीदेवी इत्यादि के नाम रेखांकित करने योग्य हैं।
श्रीदेवी ने अपने जीवन काल में, ‘कालातीत व्यक्तुलु’ शीर्षक एकमात्र मनोवैज्ञानिक उपन्यास लिखा, वह न केवल तेलुगु पाठक समाज में चर्चित हुआ, बल्कि कालजयी बन पड़ा। इस उपन्यास में श्रीदेवी ने शिक्षित नारी व पुरुष के संबंधों, विविध पात्रों व स्तरों का गहराई से विश्लेषण किया। साथ ही प्रेम-विवाह एकाकी जीवन, पारिवारिक समस्याओं के चक्र में जूझते हुए युवक-युवतियां किस प्रकार संघर्षमय जीवन व्यतीत करते हैं, और सामाजिक मान्यताओं के चौखट में अपने को नियंत्रित करने की राह में उन्हें किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, समाज और परिवार के ढांचे में आर्थिक समस्याएं जटिल बनकर जीवन को कैसे प्रभाविक करती हैं, इन सब स्थितियों का श्रीदेवी ने बेबाक चित्रण किया है।
‘कालातीत व्यक्तुलु’ (कालातीत व्यक्ति) उपन्यास तेलुगु के लोकप्रिय साप्ताहिक स्वतंत्र में सन् 1955-1956 में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास ने पाठक जगत में तहलका मचा दिया। जिज्ञासु पाठक प्रति सप्ताह बड़ी उत्सुकता से उपन्यास की अगली कड़ी की प्रतीक्षा करते थे। इस उपन्यास में जो वैविध्यपूर्ण पात्र चित्रित हुए हैं, वे जीवन के विविध सोपानों के प्रतिनिधियों के रूप में हमारे सम्मुख प्रस्तुत होते हैं। बल्कि पात्रों के मनोभावों के विश्लेषण तथा संवादों के संदर्भ में ऐसा प्रतीत होता है, मानो वे जीवित पात्र बनकर चलचित्र की भांति हमारे नयनों के समक्ष हैं। उपन्यास की भाषा व शैली ऐसी जीवंत एवं रोचक बन पड़ी है जो पाठक की उंगली पकड़कर अपने साथ ले चलती है, और ये पात्र हमारे मनोपटल पर हमेशा के लिए रह जाते हैं।
उपन्यास की कथानायिका इंदिरा अपने बचपन में ही मां के प्यार से वंचित हो जाती है। पिता आनन्दराव छोटी-सी नौकरी करते हुए अपनी भाभी और फूफी के दुर्व्यवहारों से तंग आकर बुरे व्यसनों का शिकार होता है और नौकरी से हाथ धो बैठता है। ऐसी हालत में बी.ए. की छात्रा इन्दिरा अपनी पढ़ाई को तिलांजलि देकर एक कंपनी में स्टेनो की नौकरी करने के लिए बाध्य हो जाती है। जीवन निर्वाह के लिए उसकी कमाई पर्याप्त नहीं है। इस कारण समाज की व्यवस्था के प्रति वह अपने मन में द्वेष पालती है, और पुरुषों के जीवन के साथ खेलते हुए सदा प्रसन्न रहने और अपनी व्यथा को भुलाने का प्रयास करती है। वह यथा संभव अपने संपर्क में आनेवाले लोगों की मदद भी करती है।
किराए के उस मकान की पहली मंजिल पर एम.बी.बी.एस का छात्र प्रकाशन रहता है। उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है। उसके पिता का निधन हो गया है। उसकी मां एक भोली-भाली ग्रामीण महिला है। पति की मृत्यु के पश्चात् अपने भाई-भाभी की शरण में जाकर उस घर में चाकरी करती रहती है। उसका पति अपने पीछे जो कुछ जमीन जायदाद व संपत्ति छोड़ गया था, उस पर आधिपत्य जमाकर उसकी आमदनी हड़पते हुए प्रकाशम का मामा उसकी पढ़ाई की जिम्मेदारी वहन करता है। किराएदार के रूप में एक ही मकान में निवास करते हुए प्रकाशम की इन्दिरा के साथ सहज रूप में घनिष्ट दोस्ती हो जाती है। इन्दिरा के साथ सहज रूप में घनिष्ठ दोस्ती हो जाती है। इन्दिरा के दृढ़ व्यक्तित्व के सामने वह दब्बू बना रहता है।
एक निराश्रित छात्रा कल्याणी, इन्दिरा की सहेली है, रकम खाकर इन्दिरा उसे अपने घर में आश्रय देती है। इधर कृष्णमूर्ति का प्रकाशम के कमरे में आना इन्दिरा भांप लेती है। उसे यह भी मालूम होता है कि कृष्णमूर्ति संपन्न परिवार और शौकीन मिजाज का है। अतः उसे अपने जाल में फंसाने का हर प्रयत्न करती है। उधर प्रकाशम, कल्याणी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उसका आत्मीय बन जाता है। इन्दिरा, कल्याणी को अपने घर से बाहर जाने के लिए विवश कर देती है।
फिर उपन्यास के घटनाक्रम की गति तेज हो जाती है। पिता के अस्वस्थ होने का समाचार पाकर कल्याणी अपने गांव चली जाती है। थोड़े ही दिनों में उसके पिता का स्वर्गवास हो जाता है। गांव के बुजुर्ग लोगों की आत्मीयता एवं सहयोग का आश्वासन पाकर कल्याणी अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए विशाखापट्टम के लिए निकल पड़ती है। संयोग से रेलगाड़ी में उसकी दोस्त बसुन्धरा से उसकी मुलाकात होती है और उसके अनुरोध पर कल्याणी, वसुन्धरा के घर चली जाती है। वसुन्धरा संपन्न परिवार की कन्या है। उसके भाई, रिश्ते से मौसी लगती एक स्त्री को रसोई बनाने के लिए वसुन्धरा के पास भेज देते हैं।
इस बीच प्रकाशम के मामा के नाम पर जाली चिट्ठियां पहुंचती हैं कि प्रकाशम पढ़ाई में रुचि न लेकर लड़कियों के साथ मटरगश्ती करता रहता है। मामा विशाखापट्टम पहुंचकर प्रकाशम डरा-धमकाकर उसकी शादी कराने का प्रयत्न करता है। अपने मामा के अनुरोध पर प्रकाशम राजमहेन्द्रवरम में एक कन्या को देखने जाता है, परंतु इन्दिरा की याद आते ही विशाखापट्टम लौट आता है। परंतु इन्दिरा समझ जाती है कि प्रकाशम का अपना कोई स्वतंत्रत व्यक्तित्व नहीं है। वह ढुलमुल प्रकृति का है और उसके भरण-पोषण का दायित्व वहन करना उससे संभव नहीं है, इस विचार से उससे पिंड छुड़ा लेती है।
कल्याणी का शुभाकांक्षी रामिरेड्डी नायडु गांव में कल्याणी के पिता की बची-खुची संपत्ति बेच सारा धन कल्याणी को सौंपने के लिए विशाखापट्टणम पहुंच जाते हैं और दुर्भायवश दिल के दौरे का शिकार होकर अस्पताल में देह त्याग देते हैं। उस समय कृष्णमूर्ति और डॉ. चक्रवर्ती कल्याणी की बड़ी मदद करते हैं। इस प्रयास में अक्सर उन दोनों का वसुन्धरा के घर आना, उसकी मौसी को बुरा लगता है। कोई चाल चलकर वह कल्याणी को वसुन्धरा के घर से निकलवा देती है। वसुन्धरा, कल्याणी की दुर्दशा पर आंसू बहाती है, पर कुछ कर नहीं पाती। वह कृष्णमूर्ति के उत्तम व्यवहार पर मुग्ध हो उससे एकांत में वार्ता करने ‘बीच’ पर जाती है और उसके साथ विवाह करने की इच्छा व्यक्त करती है। कृष्णमूर्ति भी अपनी स्वीकृति दे देता है। उनके साहचर्य को देख इन्दिरा ईर्ष्या से भर जाती है और उसके सामने आत्मसमर्पण कर देती है।
कृष्णमूर्ति समझ जाता है कि उसके जैसे दुर्बल चरित्रवाला व्यक्ति इंदिरा जैसी असंतुलित चरित्रवाली युवती का पति बन सकता है, मगर वसुन्धरा जैसी सुशील एवं विज्ञ युवती का पति बनने योग्य नहीं है। इस विचार से प्रेरित कृष्णमूर्ति इन्दिरा के साथ वैवाहिक बंधन में बंध जाता है।
कल्याणी वसुन्धरा के घर से निकलने के पश्चात किराए के घर में रहते हुए कुछ बच्चों को ट्यूशन देती है। डॉ चक्रवर्ती विधुर है परंतु सहृदयी पुरुष है, कल्याणी उसके साथ विवाह करती है।
उपन्यास के नामकरण में ही उसके इतिवृत्त का वैशिष्ट्य प्रकट होता है। इसके अधिकांश पात्र समकालीन समाज की स्थितियों से भिन्न व्यक्तित्व वाले हैं। कालातीत व्यक्ति हैं। इन्दिरा का चरित्र वैविध्यपूर्ण है। वह आधुनिक समाज का प्रतिनिधित्व करते हुए परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाती है और अपने जीवन को एक तट पर पहुंचाने की अद्भुत सामर्थ्य रखती है। उसके चरित्र में दुराव छिपाव नहीं है, गंभीरता है और सामाजिक विकृतियों व विदूपताओं को स्वीकार करते हुए उनका सामना करने की प्रबल इच्छा शक्ति भी है।
लेखिका ने इन्दिरा के मुंह से जीवन के यथार्थ सत्यों का उद्घोष कराया है। यहां दांपत्य जीवन के माधुर्य और नारी के व्यक्तित्व एवं स्वातंत्र्य का सशक्त चित्रण प्रस्तुत किया गया है।
श्री देवी ने कालातीत व्यक्ति उपन्यास में जीवन की विशद व्याख्या के साथ अपनी एक विशिष्ट प्रयोगधर्मिता का परिचय दिया है। वस्तु एवं शिल्प की दृष्टि से तेलुगु उपन्यास के क्षेत्र में यह एक परिपुष्ट उपन्यास है। समाज में नारी, शिक्षा, आर्थिक स्वातंत्र्य, मध्य वित्य परिवारों में प्रादुर्भाव जागरण, उतार चढ़ाव व चेतना के दृष्टिगत श्रीदेवी ने नारी को केंद्र बिंदु माना है।
इस उपन्यास में नारी के संघर्ष का यथार्थ चित्र, संवादात्मक शैली एवं सूक्तियां जैसी भाषा में अद्वितीय ढंग से प्रस्तुत है। कथानक में भावबोध का विशद चित्र इस उपन्यास को श्रेष्ठ रचनाओं की पंक्ति में बिठाता है।
समाज व्यक्तियों का समाहार है। साहित्य समाज का प्रतिफलन होता है। अतः समाज में नित्य प्रति घटित होनेवाली हलचलों कथा संघर्षों का चित्रण और विश्लेषण साहित्य का कथ्य होता है। अंग्रेजी के विख्यात कथाकार श्री रॉल्फ फाक्स ने ‘उपन्यास और लोक’ नामक अपनी पुस्तक में परिभाषा दी है, मानव जीवन की विविध कोणों से विश्लेषित एवं व्याख्या करने की सफल साहित्यिक विधा उपन्यास है।’’ सामाजिक स्थितियों को सही माने में विश्लेषित एवं परिभाषित करने के लिए रचनाकार में गहरी संवेदनशीलता, क्षमता तथा गहन अनुभूतियों की आवश्यकता होती है। साथ ही अपने जीवनानुभवों को व्यापक पटल पर अंकित करने योग्य भाषा-शैली तथा कलात्मक दृष्टि की भी आवश्यकता होती है, दरअसल मानव जीवन को गहराई से समग्र रूप में विश्लेषित करने में सर्वप्रथम उपन्यास ही सफल हुआ है।
आधुनिक तेलुगु साहित्य में विशेष लोकप्रिय विधा उपन्यास ही है। अन्य भारतीय भाषाओं की भांति, तेलुगु भाषा के लिए भी, कथा साहित्य अंग्रेजी की देन है। उपन्यास की परिभाषा के मानदंड पर प्रमाणित, तेलुगु का प्रथम उपन्यास श्री वीरेशलिंगम कृत राजशेखर चरित्र माना जाता है। परंतु यह उपन्यास अंग्रेजी के विख्यात उपन्यासकार श्री गोल्डस्मिथ के विकार ऑफ़ बेक्फील्ड का आंध्र के परिवेश में छायानुवाद है। यह उपन्यास तत्कालीन आंध्र की सामाजिक रीति-नीतियों का ऐसा दर्पण बन पड़ा है, जिससे वह एक मौलिक उपन्यास की श्रेणी में सफल सिद्ध हुआ है। परिणामस्वरूप एक अंग्रेजी की लेखिका ने पुनः इसका रूपान्तर ‘फार्चून्स हील’ नाम से अंग्रेजी में किया। अंग्रेजी दैनिक पत्र The Hindu ने ‘राजशेखर चरित्र’ उपन्यास पर टिप्पणी प्रकाशित की-
We may well say that Rajasekhar charitra marks an era in the amang of Telugu literature. It is the first Telugu novel that has yet appeared and as an attempt a new direction. We must consider it a success….’’
राजशेखर चरित्र का रचनाकाल सन् 1978 है, परंतु कतिपय समीक्षकों की मान्यता है कि श्री नरहरि गोपाल कृष्णम चेट्टि रचित श्री रंगराय चरित्रम् प्रथम उपन्यास है जो सन् 1872 में लिखा गया। उन्होंने अपने इस उपन्यास के बारे में लिखा है कि दस महीने पूर्व लार्ड मेयो ने घोषित किया था कि बंगाल के आचार व्यवहार एवं सामाजिक रीति-रिवाजों पर प्रकाश डालते हुए प्रस्तुत होने वाले प्रबंध-लेखक को सम्मानित एवं पुरस्कृत किया जाएगा।’ इस विज्ञप्ति को पढ़ते ही मेरे मन में आन्ध्र की सामाजिक पृष्ठभूमि पर एक उपन्यास लिखने की प्रेरणा जगी।
परंतु तेलुगु के मूर्धन्य समीक्षकों तथा पंडितों ने राजशेखर चरित्र को ही तेलुगु का प्रथम उपन्यास, निर्धारित किया। कथ्य की दृष्टि से राजशेखर चरित्र एक सशक्त सामाजिक उपन्यास है।
इसके बाद तेलुगु में संस्कृति, दर्शन, इतिहास तथा कल्पना प्रधान उपन्यासों की बाढ़ सी आ गई। श्री वीरेशलिंगम ने स्त्री समाज के उद्धार को लक्ष्य बनाकर विपुल साहित्य का सृजन किया। फिर श्री विश्वनाथ सत्यनारायण ने संस्कृति, तत्वान्वेषण तथा शिल्प की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण उपन्यास लिखे। श्री लक्ष्मीनारायण पंतुलु ने राजनीतिक एवं राष्ट्रीय आंदोलन पर केंद्रित ‘मालपल्लि’ (हरिजन बस्ती) नाम से एक क्रांतिकारी उपन्यास लिखा। श्री गुडिपाटि वेंकट चलम ने व्यक्ति की स्वतंत्रता और नारी मुक्ति को अपने उपन्यासों का कथ्य बनाया, तो बुच्चिबाबू ने मनोवैज्ञानिक उपन्यास रचे। अडिव बापिराजु तथा श्री नोरि लरसिंह राव ने ऐतिहासिक उपन्यास, श्री महीधर राममोहन राव ने राजनीतिक उपन्यास लिखे। श्री के. बटुंबराव ने मध्यवर्ग की समस्याओं को अपनी रचनाओं का कथ्य बनाया, तो श्रीमती रंगनायकम्मा ने नारी समस्याओं का सुंदर विश्लेषण किया। डा. केशवरेड्डी ने दलित पीड़ित समाज का चित्रण किया। श्री राचकोंड विश्वनाथ शास्त्री डॉ. रावरि भारद्वाज श्री गोपीचन्द्र श्री जी.वी. कृष्णराव ने तेलुगु उपन्यास को व्यापाक धरातल प्रस्तुत किया। छठे सातवें दशक में विविध विषयों पर हजारों उपन्यास रचे गए। आठवें दशक में सामाजिक कुरीतियों पर उपन्यासों की बाढ़ सी आई। साथ ही प्रगति शीलता एवं नारी समस्याओं को लेकर भी पर्याप्त संख्या में अच्छे-अच्छे उपन्यास रचे गए। नौवें दशक में विषय-वस्तु में वैविध्य के साथ गहनता एवं व्यापकता दृष्टिगोचर होती है। ग्रामीण जनता की जमीन संबंधी समस्याएं, गरीब किसानों तथा मजदूरों की जीवन संबंधी जटिलताएँ पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाववश मानवीय संबंधों की दरारें...विशद रूप से विश्लेषित हुईं हैं। अंतिम दशक में आर्थिक, राजनीतिक, समस्याओं के साथ दलित समाज, नारी वर्ग वृद्धों का अनादर, अकाल जाति धर्म वर्ग व वर्णों के बीच वैमनस्य, शिक्षा उपाधि बेकारी नक्सलबारी विद्रोह के साथ समानता आदि के सुंदर चित्र प्रस्तुत हैं।
स्वाधीनता से पूर्व तेलुगु में मुख्यतः समाज सुधार, राष्ट्रीय चेतना, इतिहास तथा मनोवैज्ञानिक उपन्यासों की विपुल मात्रा में रचना हुई स्वाधीनता के पश्चात् जनता की आशा-आकांक्षाओं का हनन और मोहभंग हुआ। शिक्षा के प्रचार के साथ नारी समाज में अभूतपूर्व जागृति आई। कामकाजी महिलाओं तथा गृहणियों के दैनंदिन जीवन में जो बदलाव आए, उनका चित्रण लेखिकाओं ने मर्मस्पर्शी शब्दों में किया।
स्वतंत्र्योत्तर काल में तेलुगु में कथ्य व शिल्प की दृष्टि से जिन लेखिकाओं ने उपन्यास के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई, उनमें श्रीमती मालती चन्दूर, रंगनायकम्मा, तेन्नेटि हेमलता, कोडूरि कौशल्या देवी, यद्दनपूडि सुलोचना रानी, मादिरेड्डी सुलोचना द्विवेदुल विशालाक्षि सी. आनन्द रामम, वासिरेड्ड़ी सीतादेवी, बीनादेवी, डी कामेश्वरी, ओल्गा, पविन निर्मला प्रभावती, मल्लादि वसुन्धरा, श्रीदेवी इत्यादि के नाम रेखांकित करने योग्य हैं।
श्रीदेवी ने अपने जीवन काल में, ‘कालातीत व्यक्तुलु’ शीर्षक एकमात्र मनोवैज्ञानिक उपन्यास लिखा, वह न केवल तेलुगु पाठक समाज में चर्चित हुआ, बल्कि कालजयी बन पड़ा। इस उपन्यास में श्रीदेवी ने शिक्षित नारी व पुरुष के संबंधों, विविध पात्रों व स्तरों का गहराई से विश्लेषण किया। साथ ही प्रेम-विवाह एकाकी जीवन, पारिवारिक समस्याओं के चक्र में जूझते हुए युवक-युवतियां किस प्रकार संघर्षमय जीवन व्यतीत करते हैं, और सामाजिक मान्यताओं के चौखट में अपने को नियंत्रित करने की राह में उन्हें किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, समाज और परिवार के ढांचे में आर्थिक समस्याएं जटिल बनकर जीवन को कैसे प्रभाविक करती हैं, इन सब स्थितियों का श्रीदेवी ने बेबाक चित्रण किया है।
‘कालातीत व्यक्तुलु’ (कालातीत व्यक्ति) उपन्यास तेलुगु के लोकप्रिय साप्ताहिक स्वतंत्र में सन् 1955-1956 में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास ने पाठक जगत में तहलका मचा दिया। जिज्ञासु पाठक प्रति सप्ताह बड़ी उत्सुकता से उपन्यास की अगली कड़ी की प्रतीक्षा करते थे। इस उपन्यास में जो वैविध्यपूर्ण पात्र चित्रित हुए हैं, वे जीवन के विविध सोपानों के प्रतिनिधियों के रूप में हमारे सम्मुख प्रस्तुत होते हैं। बल्कि पात्रों के मनोभावों के विश्लेषण तथा संवादों के संदर्भ में ऐसा प्रतीत होता है, मानो वे जीवित पात्र बनकर चलचित्र की भांति हमारे नयनों के समक्ष हैं। उपन्यास की भाषा व शैली ऐसी जीवंत एवं रोचक बन पड़ी है जो पाठक की उंगली पकड़कर अपने साथ ले चलती है, और ये पात्र हमारे मनोपटल पर हमेशा के लिए रह जाते हैं।
उपन्यास की कथानायिका इंदिरा अपने बचपन में ही मां के प्यार से वंचित हो जाती है। पिता आनन्दराव छोटी-सी नौकरी करते हुए अपनी भाभी और फूफी के दुर्व्यवहारों से तंग आकर बुरे व्यसनों का शिकार होता है और नौकरी से हाथ धो बैठता है। ऐसी हालत में बी.ए. की छात्रा इन्दिरा अपनी पढ़ाई को तिलांजलि देकर एक कंपनी में स्टेनो की नौकरी करने के लिए बाध्य हो जाती है। जीवन निर्वाह के लिए उसकी कमाई पर्याप्त नहीं है। इस कारण समाज की व्यवस्था के प्रति वह अपने मन में द्वेष पालती है, और पुरुषों के जीवन के साथ खेलते हुए सदा प्रसन्न रहने और अपनी व्यथा को भुलाने का प्रयास करती है। वह यथा संभव अपने संपर्क में आनेवाले लोगों की मदद भी करती है।
किराए के उस मकान की पहली मंजिल पर एम.बी.बी.एस का छात्र प्रकाशन रहता है। उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है। उसके पिता का निधन हो गया है। उसकी मां एक भोली-भाली ग्रामीण महिला है। पति की मृत्यु के पश्चात् अपने भाई-भाभी की शरण में जाकर उस घर में चाकरी करती रहती है। उसका पति अपने पीछे जो कुछ जमीन जायदाद व संपत्ति छोड़ गया था, उस पर आधिपत्य जमाकर उसकी आमदनी हड़पते हुए प्रकाशम का मामा उसकी पढ़ाई की जिम्मेदारी वहन करता है। किराएदार के रूप में एक ही मकान में निवास करते हुए प्रकाशम की इन्दिरा के साथ सहज रूप में घनिष्ट दोस्ती हो जाती है। इन्दिरा के साथ सहज रूप में घनिष्ठ दोस्ती हो जाती है। इन्दिरा के दृढ़ व्यक्तित्व के सामने वह दब्बू बना रहता है।
एक निराश्रित छात्रा कल्याणी, इन्दिरा की सहेली है, रकम खाकर इन्दिरा उसे अपने घर में आश्रय देती है। इधर कृष्णमूर्ति का प्रकाशम के कमरे में आना इन्दिरा भांप लेती है। उसे यह भी मालूम होता है कि कृष्णमूर्ति संपन्न परिवार और शौकीन मिजाज का है। अतः उसे अपने जाल में फंसाने का हर प्रयत्न करती है। उधर प्रकाशम, कल्याणी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उसका आत्मीय बन जाता है। इन्दिरा, कल्याणी को अपने घर से बाहर जाने के लिए विवश कर देती है।
फिर उपन्यास के घटनाक्रम की गति तेज हो जाती है। पिता के अस्वस्थ होने का समाचार पाकर कल्याणी अपने गांव चली जाती है। थोड़े ही दिनों में उसके पिता का स्वर्गवास हो जाता है। गांव के बुजुर्ग लोगों की आत्मीयता एवं सहयोग का आश्वासन पाकर कल्याणी अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए विशाखापट्टम के लिए निकल पड़ती है। संयोग से रेलगाड़ी में उसकी दोस्त बसुन्धरा से उसकी मुलाकात होती है और उसके अनुरोध पर कल्याणी, वसुन्धरा के घर चली जाती है। वसुन्धरा संपन्न परिवार की कन्या है। उसके भाई, रिश्ते से मौसी लगती एक स्त्री को रसोई बनाने के लिए वसुन्धरा के पास भेज देते हैं।
इस बीच प्रकाशम के मामा के नाम पर जाली चिट्ठियां पहुंचती हैं कि प्रकाशम पढ़ाई में रुचि न लेकर लड़कियों के साथ मटरगश्ती करता रहता है। मामा विशाखापट्टम पहुंचकर प्रकाशम डरा-धमकाकर उसकी शादी कराने का प्रयत्न करता है। अपने मामा के अनुरोध पर प्रकाशम राजमहेन्द्रवरम में एक कन्या को देखने जाता है, परंतु इन्दिरा की याद आते ही विशाखापट्टम लौट आता है। परंतु इन्दिरा समझ जाती है कि प्रकाशम का अपना कोई स्वतंत्रत व्यक्तित्व नहीं है। वह ढुलमुल प्रकृति का है और उसके भरण-पोषण का दायित्व वहन करना उससे संभव नहीं है, इस विचार से उससे पिंड छुड़ा लेती है।
कल्याणी का शुभाकांक्षी रामिरेड्डी नायडु गांव में कल्याणी के पिता की बची-खुची संपत्ति बेच सारा धन कल्याणी को सौंपने के लिए विशाखापट्टणम पहुंच जाते हैं और दुर्भायवश दिल के दौरे का शिकार होकर अस्पताल में देह त्याग देते हैं। उस समय कृष्णमूर्ति और डॉ. चक्रवर्ती कल्याणी की बड़ी मदद करते हैं। इस प्रयास में अक्सर उन दोनों का वसुन्धरा के घर आना, उसकी मौसी को बुरा लगता है। कोई चाल चलकर वह कल्याणी को वसुन्धरा के घर से निकलवा देती है। वसुन्धरा, कल्याणी की दुर्दशा पर आंसू बहाती है, पर कुछ कर नहीं पाती। वह कृष्णमूर्ति के उत्तम व्यवहार पर मुग्ध हो उससे एकांत में वार्ता करने ‘बीच’ पर जाती है और उसके साथ विवाह करने की इच्छा व्यक्त करती है। कृष्णमूर्ति भी अपनी स्वीकृति दे देता है। उनके साहचर्य को देख इन्दिरा ईर्ष्या से भर जाती है और उसके सामने आत्मसमर्पण कर देती है।
कृष्णमूर्ति समझ जाता है कि उसके जैसे दुर्बल चरित्रवाला व्यक्ति इंदिरा जैसी असंतुलित चरित्रवाली युवती का पति बन सकता है, मगर वसुन्धरा जैसी सुशील एवं विज्ञ युवती का पति बनने योग्य नहीं है। इस विचार से प्रेरित कृष्णमूर्ति इन्दिरा के साथ वैवाहिक बंधन में बंध जाता है।
कल्याणी वसुन्धरा के घर से निकलने के पश्चात किराए के घर में रहते हुए कुछ बच्चों को ट्यूशन देती है। डॉ चक्रवर्ती विधुर है परंतु सहृदयी पुरुष है, कल्याणी उसके साथ विवाह करती है।
उपन्यास के नामकरण में ही उसके इतिवृत्त का वैशिष्ट्य प्रकट होता है। इसके अधिकांश पात्र समकालीन समाज की स्थितियों से भिन्न व्यक्तित्व वाले हैं। कालातीत व्यक्ति हैं। इन्दिरा का चरित्र वैविध्यपूर्ण है। वह आधुनिक समाज का प्रतिनिधित्व करते हुए परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाती है और अपने जीवन को एक तट पर पहुंचाने की अद्भुत सामर्थ्य रखती है। उसके चरित्र में दुराव छिपाव नहीं है, गंभीरता है और सामाजिक विकृतियों व विदूपताओं को स्वीकार करते हुए उनका सामना करने की प्रबल इच्छा शक्ति भी है।
लेखिका ने इन्दिरा के मुंह से जीवन के यथार्थ सत्यों का उद्घोष कराया है। यहां दांपत्य जीवन के माधुर्य और नारी के व्यक्तित्व एवं स्वातंत्र्य का सशक्त चित्रण प्रस्तुत किया गया है।
श्री देवी ने कालातीत व्यक्ति उपन्यास में जीवन की विशद व्याख्या के साथ अपनी एक विशिष्ट प्रयोगधर्मिता का परिचय दिया है। वस्तु एवं शिल्प की दृष्टि से तेलुगु उपन्यास के क्षेत्र में यह एक परिपुष्ट उपन्यास है। समाज में नारी, शिक्षा, आर्थिक स्वातंत्र्य, मध्य वित्य परिवारों में प्रादुर्भाव जागरण, उतार चढ़ाव व चेतना के दृष्टिगत श्रीदेवी ने नारी को केंद्र बिंदु माना है।
इस उपन्यास में नारी के संघर्ष का यथार्थ चित्र, संवादात्मक शैली एवं सूक्तियां जैसी भाषा में अद्वितीय ढंग से प्रस्तुत है। कथानक में भावबोध का विशद चित्र इस उपन्यास को श्रेष्ठ रचनाओं की पंक्ति में बिठाता है।
-बालशौरि रेड्डी
1
जल्दी-जल्दी आधी सीढ़ियां चढ़कर कृष्णमूर्ति ने पुकारा, ‘प्रकाशम् !’ बालकनी से सीढ़ियों की ओर झांकते हुए प्रकाशम् ने कहा, ‘‘आ रहा हूं भाई ! लेकिन सुनो, तुम्ही ऊपर आ जाओ न !’’ कृष्णमूर्ति ने आखिरी बात सुनी। वह नीचे उतर कर गली में आ खड़ा हुआ और गुरगुनाने लगा। इतने में उसको लगा कि बगल से कोई तेजी से निकल गया। चौंककर उसने उस व्यक्ति की ओर गौर से देखा। लगा कि उसे कुछ हो गया है। तब प्रकाशम् नीचे उतर आया। उसने कृष्णमूर्ति के कंधे पर हाथ रखकर कहा, ‘‘चलो !’
दोनों गली से मुड़कर मुख्य सड़क की ओर चलने लगे। रास्ते में प्रकाशम् ने पूछा, ‘‘बोले कृष्णमूर्ति कोई खास खबर है ? सुना है कि तुम इस बीच हैदराबाद हो आए।’’
कृष्णमूर्ति ने कुछ अन्यमनस्क होकर पूछा, ‘‘मेरी खास खबरों की बात छोड़ दो, वह बिजली कौन है ?’’ प्रकाशम् की समझ में नहीं आया। वह चकित हुआ, कौन ?’’
‘‘तुमने नहीं देखा ? अभी-अभी तुम्हारे घर के अंदर गई है।’’
‘‘वही चश्मेवाली और दो चोटियोंवाली लड़की ?’’ प्रकाशम् ने पूछा।
‘‘हाँ, हाँ, कृष्णमूर्ति ने जवाब दिया। ‘‘नए किराएदार आए हैं। हमारे घर के निचले भाग में रहते हैं।’’
उसकी बात सुनकर कृष्णमूर्ति ने अजीब-सा चेहरा बनाया। ‘‘इसी घर में रहते हैं ? फिर बताया क्यों नहीं ?’’ मानो अपने आपसे उसने कहा।
प्रकाशम् ने हंसते हुए सफाई दी, ‘‘बताने के लिए क्या है इसमें ?’’ वे लोग अभी-अभी आए हैं। कुल पंद्रह दिन भी नहीं बीते। इतने दिनों से तुम भी तो यहाँ नहीं थे ?’’ उसने फिर कहा, ‘‘लेकिन मुझे तो डर लगता है कृष्णमूर्ति ! कमरा बदलना होगा।’’
कृष्णमूर्ति ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा, ‘‘क्यों ? डर क्यों ? वह नर्स है या छात्रा ?’’
‘‘दोनों ही नहीं। वर्किंग गर्ल है। कहीं नौकरी कर रही है। बी.ए. प्रथम वर्ष पूरा कर पढ़ाई छोड़ चुकी है। शायद पैसे की तंगी के कारण टाइम और शार्टहैंड सीख ली है। आजकल रेलवे के किसी दफ्तर में नौकरी कर रही है। अनकापल्ली के पास के किसी गांव की है।’’ प्रकाशम् अपने आपसे संतुष्ट हुआ कि उसने उस लड़की के बारे में जो कुछ जानता है सब बता दिया।’’
‘‘पन्द्रह दिनों में इतना सारा समाचार इकट्ठा किया ? फिर उस लड़की से क्यों डरते हो ? खैर, उस लड़की से भेंट करवाओगे ?’’ कृष्णमूर्ति ने पूछा।
‘‘जरूर, अनुरोध की क्या जरूरत है आज कमरे में लौटते ही वह खुद पूछ बैठेगी-‘‘आपने अपने दोस्त से परिचय क्यों नहीं कराया ?’ जानते हो, कल क्या हुआ ?....अजीब लड़की है,’’ न जाने क्यों, प्रकाशम् रुक गया।
‘‘क्या हुआ ? बिना कुछ बताए ऐसे हिचकिचाते क्यों हो ?’’ कृष्णमूर्ति ने उसे कन्धा पकड़कर हिलाया।
‘‘इंटर में इस लड़की की एक सहपाठिन थी। उस लड़की का नाम कल्याणी है। इसी वर्ष ऑनर्स में दाखिला लिया है। एक शाम उसे अचानक मेरे कमरे में ले आई, परिचय कराने के बहाने।’’
‘‘अच्छा हुआ ! दो स्नेह-लताओं को एक साथ पाया। तुमने।’’ कृष्णमूर्ति ने कुछ ईर्ष्या से कहा।
प्रकाशम् ने तुरंत जवाब दिया, ‘‘परेशान न हो ऐसे। इंदिरा ने अभी तक तुमको गौर से नहीं देखा है। देखती तो कंधे पर हाथ रखकर तुमसे बातें करने लगती। आधे मिनट के परिचय के बाद लोगों से छह घंटे तक बाचचीत करती है। बहुत तेज लड़की है।’’ प्रकाशम ने अपने दोस्त को तत्काल सांत्वना देने की कोशिश की।
‘‘इतना अच्छा परिचय पाकर मुंह क्यों बनाते हो ? खैर ! अगर तुम कमरा खाली करोगे तो मुझे जरूर बताना।’’ कृष्णमूर्ति ने कहा।
तब तक प्रकाशम् हंसते हुए बातें कर रहा था। उसकी बात सुनकर प्रकाशम् का मुंह सूख गया। फिर संभलकर उसने कहा, ‘हां हां ! जरूर !’’
दोनों पूर्णा थिएटर की ओर चल पड़े।
प्रकाशम् एम.बी.बी.एस. फाइनल इयर में पढ़ रहा है। कॉलेज के सामने चेंगलराव पेटा डाऊन मे कोठी में रहता है। कल तक वह कोठी छात्रों की लॉज सी लगती थी। मेडिकल कॉलेज में दाखिल होने के दिन से आज तक वह उसी में रहता आया है-ऊपर वाले कमरे में। नीचे कुल चार कमरे हैं। उनमें इसके पहले ए.वी.एन. कॉलेज के छात्र रहते थे। गर्मी की छुट्टियों में वे खाली करके चले गए थे। अब उसी हिस्से में इंदिरा और उसके पिताजी रहते हैं।
ऊंचे, चबूतरे गली की तरफ छोटा सा बरामदा, बरामदे से भीतर का प्रकोष्ट और उसमें से ऊपर छत की तरफ घुमावदार सीमेंट की छोटी सीढियां।
तीस साल पहले का बना हुआ सुंदर मकान। प्रकाशम् को अपने कमरे में आने-जाने के लिए उसी प्रकोष्ठ से होकर जाना पड़ता है। परिवार वाले घर में चलना फिरना और मिलने के लिए किसी का आना-जाना प्रकाशम् को अच्छा नहीं लगता, क्योंकि इससे घरवालों को असुविधा होती है। इसके पूर्व वहां प्रायः छात्र ही रहते थे। उससे कोई तकलीफ नहीं थी। पहले उसने सोचा था कि कोई दूसरा कमरा ले लें तो अच्छा होगा। लेकिन उसको लगा कि पांच वर्षों से उसी में रहने का, और बिना किसी रुकावट के पढ़ाई जारी रखने का, कोई विशेष कारण होगा। इसी भरोसे वह अपना समय बिता रहा है। उस घर में प्रवेश करने के दूसरे ही दिन इंदिरा घबराई हुई प्रकाशम् के कमरे में पहुँची, ‘‘सुनिए, पिताजी को एक घंटे से न जाने क्यों बहुत तकलीफ हो रही है। शायद सफर की थकान के कारण हो। एक बार आकर आप देख लेते !’’
प्रकाशम् ने जाकर देखा, ‘‘आपके पिताजी को शायद ब्लडप्रेशर है। डरने की कोई बात नहीं है। पूरा आराम करने दीजिए। रात का खाना बंद रखें, थोड़ा सा दूध दें। कल सुबह अस्पताल ले जाकर दिखाएं।’’
अगले दिन इंदिरा प्रकाशम् के कमरे में आई, ‘‘आप अस्पताल जा रहे हैं न ? आपको एतराज न हो तो मैं पिताजी को भी साथ ले चलूं।’’
‘‘हाँ-हाँ, आप क्यों आ गईं ? मैं स्वयं आकर बताना चाहता था। आधे घंटे में चलता हूँ। उनसे कहिए वे तैयार रहें।’’ प्रकाशम् ने कहा। जब वह नीचे उतरा, तो इंदिरा तैयार मिली। तीनों अस्पताल पहुंचे।
उस दिन शाम को इंदिरा फिर प्रकाशम् के कमरे में आई, ‘‘सुनिए, सुबह पिताजी की जांच करने के बाद डॉक्टर ने क्या कहा था ? ब्लड टेस्ट भी किया था न ? क्या बीमारी है ?’’
दोनों गली से मुड़कर मुख्य सड़क की ओर चलने लगे। रास्ते में प्रकाशम् ने पूछा, ‘‘बोले कृष्णमूर्ति कोई खास खबर है ? सुना है कि तुम इस बीच हैदराबाद हो आए।’’
कृष्णमूर्ति ने कुछ अन्यमनस्क होकर पूछा, ‘‘मेरी खास खबरों की बात छोड़ दो, वह बिजली कौन है ?’’ प्रकाशम् की समझ में नहीं आया। वह चकित हुआ, कौन ?’’
‘‘तुमने नहीं देखा ? अभी-अभी तुम्हारे घर के अंदर गई है।’’
‘‘वही चश्मेवाली और दो चोटियोंवाली लड़की ?’’ प्रकाशम् ने पूछा।
‘‘हाँ, हाँ, कृष्णमूर्ति ने जवाब दिया। ‘‘नए किराएदार आए हैं। हमारे घर के निचले भाग में रहते हैं।’’
उसकी बात सुनकर कृष्णमूर्ति ने अजीब-सा चेहरा बनाया। ‘‘इसी घर में रहते हैं ? फिर बताया क्यों नहीं ?’’ मानो अपने आपसे उसने कहा।
प्रकाशम् ने हंसते हुए सफाई दी, ‘‘बताने के लिए क्या है इसमें ?’’ वे लोग अभी-अभी आए हैं। कुल पंद्रह दिन भी नहीं बीते। इतने दिनों से तुम भी तो यहाँ नहीं थे ?’’ उसने फिर कहा, ‘‘लेकिन मुझे तो डर लगता है कृष्णमूर्ति ! कमरा बदलना होगा।’’
कृष्णमूर्ति ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा, ‘‘क्यों ? डर क्यों ? वह नर्स है या छात्रा ?’’
‘‘दोनों ही नहीं। वर्किंग गर्ल है। कहीं नौकरी कर रही है। बी.ए. प्रथम वर्ष पूरा कर पढ़ाई छोड़ चुकी है। शायद पैसे की तंगी के कारण टाइम और शार्टहैंड सीख ली है। आजकल रेलवे के किसी दफ्तर में नौकरी कर रही है। अनकापल्ली के पास के किसी गांव की है।’’ प्रकाशम् अपने आपसे संतुष्ट हुआ कि उसने उस लड़की के बारे में जो कुछ जानता है सब बता दिया।’’
‘‘पन्द्रह दिनों में इतना सारा समाचार इकट्ठा किया ? फिर उस लड़की से क्यों डरते हो ? खैर, उस लड़की से भेंट करवाओगे ?’’ कृष्णमूर्ति ने पूछा।
‘‘जरूर, अनुरोध की क्या जरूरत है आज कमरे में लौटते ही वह खुद पूछ बैठेगी-‘‘आपने अपने दोस्त से परिचय क्यों नहीं कराया ?’ जानते हो, कल क्या हुआ ?....अजीब लड़की है,’’ न जाने क्यों, प्रकाशम् रुक गया।
‘‘क्या हुआ ? बिना कुछ बताए ऐसे हिचकिचाते क्यों हो ?’’ कृष्णमूर्ति ने उसे कन्धा पकड़कर हिलाया।
‘‘इंटर में इस लड़की की एक सहपाठिन थी। उस लड़की का नाम कल्याणी है। इसी वर्ष ऑनर्स में दाखिला लिया है। एक शाम उसे अचानक मेरे कमरे में ले आई, परिचय कराने के बहाने।’’
‘‘अच्छा हुआ ! दो स्नेह-लताओं को एक साथ पाया। तुमने।’’ कृष्णमूर्ति ने कुछ ईर्ष्या से कहा।
प्रकाशम् ने तुरंत जवाब दिया, ‘‘परेशान न हो ऐसे। इंदिरा ने अभी तक तुमको गौर से नहीं देखा है। देखती तो कंधे पर हाथ रखकर तुमसे बातें करने लगती। आधे मिनट के परिचय के बाद लोगों से छह घंटे तक बाचचीत करती है। बहुत तेज लड़की है।’’ प्रकाशम ने अपने दोस्त को तत्काल सांत्वना देने की कोशिश की।
‘‘इतना अच्छा परिचय पाकर मुंह क्यों बनाते हो ? खैर ! अगर तुम कमरा खाली करोगे तो मुझे जरूर बताना।’’ कृष्णमूर्ति ने कहा।
तब तक प्रकाशम् हंसते हुए बातें कर रहा था। उसकी बात सुनकर प्रकाशम् का मुंह सूख गया। फिर संभलकर उसने कहा, ‘हां हां ! जरूर !’’
दोनों पूर्णा थिएटर की ओर चल पड़े।
प्रकाशम् एम.बी.बी.एस. फाइनल इयर में पढ़ रहा है। कॉलेज के सामने चेंगलराव पेटा डाऊन मे कोठी में रहता है। कल तक वह कोठी छात्रों की लॉज सी लगती थी। मेडिकल कॉलेज में दाखिल होने के दिन से आज तक वह उसी में रहता आया है-ऊपर वाले कमरे में। नीचे कुल चार कमरे हैं। उनमें इसके पहले ए.वी.एन. कॉलेज के छात्र रहते थे। गर्मी की छुट्टियों में वे खाली करके चले गए थे। अब उसी हिस्से में इंदिरा और उसके पिताजी रहते हैं।
ऊंचे, चबूतरे गली की तरफ छोटा सा बरामदा, बरामदे से भीतर का प्रकोष्ट और उसमें से ऊपर छत की तरफ घुमावदार सीमेंट की छोटी सीढियां।
तीस साल पहले का बना हुआ सुंदर मकान। प्रकाशम् को अपने कमरे में आने-जाने के लिए उसी प्रकोष्ठ से होकर जाना पड़ता है। परिवार वाले घर में चलना फिरना और मिलने के लिए किसी का आना-जाना प्रकाशम् को अच्छा नहीं लगता, क्योंकि इससे घरवालों को असुविधा होती है। इसके पूर्व वहां प्रायः छात्र ही रहते थे। उससे कोई तकलीफ नहीं थी। पहले उसने सोचा था कि कोई दूसरा कमरा ले लें तो अच्छा होगा। लेकिन उसको लगा कि पांच वर्षों से उसी में रहने का, और बिना किसी रुकावट के पढ़ाई जारी रखने का, कोई विशेष कारण होगा। इसी भरोसे वह अपना समय बिता रहा है। उस घर में प्रवेश करने के दूसरे ही दिन इंदिरा घबराई हुई प्रकाशम् के कमरे में पहुँची, ‘‘सुनिए, पिताजी को एक घंटे से न जाने क्यों बहुत तकलीफ हो रही है। शायद सफर की थकान के कारण हो। एक बार आकर आप देख लेते !’’
प्रकाशम् ने जाकर देखा, ‘‘आपके पिताजी को शायद ब्लडप्रेशर है। डरने की कोई बात नहीं है। पूरा आराम करने दीजिए। रात का खाना बंद रखें, थोड़ा सा दूध दें। कल सुबह अस्पताल ले जाकर दिखाएं।’’
अगले दिन इंदिरा प्रकाशम् के कमरे में आई, ‘‘आप अस्पताल जा रहे हैं न ? आपको एतराज न हो तो मैं पिताजी को भी साथ ले चलूं।’’
‘‘हाँ-हाँ, आप क्यों आ गईं ? मैं स्वयं आकर बताना चाहता था। आधे घंटे में चलता हूँ। उनसे कहिए वे तैयार रहें।’’ प्रकाशम् ने कहा। जब वह नीचे उतरा, तो इंदिरा तैयार मिली। तीनों अस्पताल पहुंचे।
उस दिन शाम को इंदिरा फिर प्रकाशम् के कमरे में आई, ‘‘सुनिए, सुबह पिताजी की जांच करने के बाद डॉक्टर ने क्या कहा था ? ब्लड टेस्ट भी किया था न ? क्या बीमारी है ?’’
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लोगों की राय
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